हाँ, मैं गुमसुम रहना पसंद करता हूँ।
भरी महफ़िल में कम और अकेले में
खुद से ज्यादा बातें करता हूँ।
इस भागदौड़ में खुद को खोने से डरता हूँ,
किसी और से नहीं, अपने से थोड़ा
ज्यादा मतलब रखता हूँ।
दूसरों की बातों पर नहीं,
खुद की सोच पर ज्यादा भरोसा करता हूँ।
ज्यादा बड़े शौक नहीं, बस कभी अनजान रास्तों पर चलते-चलते उड़ान भरने की सोचता हूँ।
अनजान बने रहने से खुद को हर दिन रोकता हूँ।
हाँ मैं गुमसुम रहना पसंद करता हूँ।
इस कयामत-ए-भीड़ की कुछ रिवायतों से
मैं रजामंदी नहीं रखता हूँ।
आज सबसे ज्यादा समझने वाले कहीं कल गलत
न समझे, इसी ख्याल में थोड़ा सहमा रहता हूँ।
झूठी मुस्कुराहट पर धोखा खाने से खुद को बचाता हूँ।
जी हाँ, इसलिए मैं गुमसुम सा रहना पसंद करता हूँ।
ऊंची ख्वाहिशे नहीं मेरी, कुछ कविता,
कहानियों के बीच में खुद को ढूंढता हूँ।
बाहर घूमने का भी शौक नहीं,
अपने कमरे में ही पूरी दुनिया सजा लेता हूँ।
तजर्बें पुराने रख कर, मैं सोच नया रखता हूँ,
जी हाँ, मैं गुमसुम रहना पसंद करता हूँ।
-बिकी खड़का
विद्यार्थी,
असम अभियांत्रिक महाविद्यालय,
गुवाहाटी, असम ।
(Credits: The Spilt Ink)