सूर्य हमारा अस्त हो गया ,
हम कब तक दीप जलाएँगे ?
घर में बैठे भूखे बच्चे,
बिलक – बिलक कर रो रहे हैं ।
खाली पेट ही जाग रहें ,
और खाली पेट ही सो रहे हैं ।।
जमा पूँजी भी खत्म हो गया,
हम कब तक उन्हें खिलाएँगे ?
मकान मालिक को भाड़ा चाहिए,
हम कहाँ से भाड़ा लाएँगे ?
गर बेघर हो गए अभी तो,
हम कहाँ भटकने जाएँगे ?
कोरोना जैसी मुसीबत से
तो हम लड़ जाएँगे ,
लेकिन जो वेतन नहीं मिला तो,
भूख से ही मर जाएँगे ।।
खाली सड़क , काली रात ,
ना मेहताब, ना आफ़ताब ।
न समा मे नूर है ।
ऐ ज़माना ! देखले हम कितने मज़बूर हैं ,
दरिद्रता से लड़ रहैं हम दीन मज़दूर हैं ।
हाँ! हम दीन मज़दूर हैं ।।
Manish Jha
(The poem is winning piece of Kalatmak 1.0, competition hosted by VYAPTI Foundation)