धीरज की उपज अपने अंदर लिए जन्मी हुई तुम जब भी पिताजी के आक्रोश को पीकर सहम जाती हो और अगले दिन पिघली हुई मोम के जैसे जब -जब अपनी इसी दुनिया को वापस समेटने लगती हैं तो मानो इससे ज़्यादा हैरान करने वाला और कोई दृश्य मुझे समझ ही नहीं आता !!
और ऐसा ही एक विचलित करने वाला पल तब हुआ था जब मेरे अंदर हो रहे बदलाव को मैं माँ से बताने को उत्तेजित हो उठी थी अपने अंतर्गत उठ रहे तूफ़ान की भाती सवालों के जवाबो को खगोलने माँ के भीतर अंतर्गत को झाकने और परखने की ज़िद्द कर बैठी थी !!
मेरी मासूम अम्मा, मेरी मासूमियत देख कर अपनी बिटिया के दूर होने के ख्याल से ही कराह जाती थी,
मैंने अम्मा से पूछा” एको बात बताओ, तुम्हो को तुम्हार वक़्त मै कौनो लइका पसंद नहीं रहत का? “तुम पिताजी से काहे बियाह ही रही “…उनका लात जूता खाये के प्रति !!तुम ई ठीक ना करी, “केहू और से ब्याह ती तो तुमहो आज ख़ुश रहती ना “
अम्मा खिखियाने लगी, वह कहना तो चाहती थी कुछ, मगर इतना ही कह कर रुक गई की “हमार पिताजी कहत रहे की “एगो लईकी आपन परिवार के नाम पर छीटा उड़ा सकत बिया, अगर उ आपन परिवार के खिलाफ जायी ता ” एक साफ और सीधी भाषा मे अम्मा की मुझे यही बात समझ आयी की उसके पास अपने जीवन को जीने के प्रति कोई अवसर नहीं था और ना ही अपने लिए किसी के खिलाफ जाकर कोई भी फैसला लेने की हिम्मत !!
सालो से मेरी अम्मा रसोई मे कौन से मसाले रखने है और कौन से नहीं इसका फैसला अपने दम पर करती आयी है मगर अपनी ही ज़िन्दगी के फैसले नहीं कर पायी कभी, क्यों? क्योंकि उसकी खुद की भी कोई पहचान है ये समझने से पहले ,उसे ये समझा दिया गया के वह अपनी किस्मत मे किसी घर की इज़्ज़त का झुनझुना लेकर पैदा हुई है !!
अम्मा जब मुझे कहती है की “लाडो मैं तेरा हर सपना पूरा करुँगी” तो पता नहीं उसे अपने ही सामने उसके कितने मरते हुए सपने याद आते होंगे,
बागो मै सहेलियों के साथ इठलाना, लड़कपन के चटखारे मारना याद आता होगा !! अम्मा जब भी मुझसे कहती थी की औरत का सहज़ होना ज़रूरी है उसी के साथ पता नहीं वो अपनी उबलती हुई क्रान्ति को कैसे रोकती होंगी !! एक तरफ मुझे ये कहती है की मै तुझे अपनी तरह नहीं बनाउंगी और दूसरी तरफ आज भी सहजता के नाम पर पिसती हुई मेरी अम्मा….मै इस तकलीफ को कभी नहीं बाट सकती !!
अम्मा संगीत में निपुण है,
कढ़ाई –बुनाई में निपुण है
खाना बनाने में लाजावाब है
मगर जब भी कही अक्षरों से घिर जाती है
और उसे पढ़ने में तकलीफ आती है
तो वह डर जाती है, डर जाती अपने आप के सामने आधुनिक हो रही इस दुनिया को देखकर
बहुत गुस्सा आता होगा उसे की, क्यों बचपन में उसके हाथों से किताबो को छीना गया…
क्यूँकि ज्ञान ढकोसले के ज़ंजीरो से मुक्त हैं, सिर्फ इसलिए? और सिर्फ क्योंकि समाज उसे ज़ंजीरो मे ही जकड कर रखना चाहता था?
मै बहुत लापरवाह किस्म की रही हूँ हमेशा ,मगर अम्मा हमेशा मेरी किताबों को किसी खूबसूरत सिरे के तरह सजाकर रखती हैं, क्योंकि वह जानती हैं किसी ऐसी चीज़ से रिश्ता ना जुड़ना जिसपर आपका अधिकार था ,
पीड़ा छोड़ जाता हैं
खैर,
काश और यदि के बीच झूझती हुई ज़िन्दगी बिलकुल वैसे ही हैं जैसे तवे के बीच सिकती हुई रोटियां होती हैं
ऐसे ही अम्मा जलती हुई आयी हैं
मगर आँच पर जलती हुई मेरी अम्मा ने ज्वाला बनना सीख लिया था,
और इसलिए मेरी अम्मा वो नहीं करती
जो उनकी अम्मा ने उनके साथ किया था
या जो आज तक होता आया था
मेरे हाथों से ना उन्होंने किताबें अलग की ना मेरी समझ को खुलने से रोका…
मै जानती हूँ उनका जीवन आसान नहीं था
मगर मै उनके लिए किसी आशा की तरह जन्मी थी
समाज में उस इज़्ज़त वाले झुनझुने की तरह नहीं ,
मै जानती हूँ ,
वो मुझमे अपने दम तोड़ते हुए सपने को ज़िंदा रखना चाहती है,
वो सहज़ है मगर मेरे साथ मेरे छूते हुए आसमान को साथ छूना चाहती है,
वो मेरी कल्पनाओ मै अपने रंगों को भी भरना चाहती है
मै उसे उसका जीवन वापस देने मै सक्षम नहीं बन सकती !! और ये एक मात्र बहुत बड़ी पीड़ा हैं..
मगर मेरे लिए संघर्ष करती हुई मेरी अम्मा को उसका अस्तित्व मै शायद किसी दिन दे सकूँ !!
मै एक मात्र भी उनके आँचल के बराबर भी हो गई कभी तो औरत कहलाने लायक़ बन सकूंगी
मेरी अम्मा !!
Rani Singh @ Samacharline
Lady Shri Ram, Delhi University