महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म सन् 1864 ई. में उत्तर प्रदेश के रायबरेली ज़िले के दौलतपुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रामसहाय द्विवेदी था। कहा जाता है कि उन्हें महावीर का इष्ट था, इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम महावीर सहाय रखा।
शिक्षा
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही हुई। प्रधानाध्यापक ने भूल से इनका नाम महावीर प्रसाद लिख दिया था। हिन्दी साहित्य में यह भूल स्थायी बन गयी। तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए वे रायबरेली के ज़िला स्कूल में भर्ती हुए। यहाँ संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फ़ारसी लेना पड़ा। इन्होंने इस स्कूल में ज्यों-त्यों एक वर्ष काटा। उसके बाद कुछ दिनों तक उन्नाव ज़िले के ‘रनजीत पुरवा स्कूल’ में और कुछ दिनों तक फ़तेहपुर में पढ़ने के बाद यह पिता के पास बम्बई चले गए। बम्बई में इन्होंने संस्कृत, गुजराती, मराठी और अंग्रेज़ी का अभ्यास किया।
मूल्यांकन
हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे। यहाँ तक की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए (खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं को समुन्नत किया। इसके लिए इनको अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती और बंगला आदि भाषाओं में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतियों का बराबर अनुशीलन करना पड़ता था। निबन्धकार, आलोचक, अनुवादक और सम्पादक के रूप में इन्होंने अपना पथ स्वयं प्रशस्त किया था।
महत्वपूर्ण कार्य
हिंदी साहित्य की सेवा करने वालों में द्विवेदी जी का विशेष स्थान है। द्विवेदी जी की अनुपम साहित्य-सेवाओं के कारण ही उनके समय को द्विवेदी युग के नाम से पुकारा जाता है। भारतेंदु युग में लेखकों की दृष्टि की शुद्धता की ओर नहीं रही। भाषा में व्याकरण के नियमों तथा विराम-चिह्नों आदि की कोई परवाह नहीं की जाती थी। भाषा में आशा किया, इच्छा किया जैसे प्रयोग दिखाई पड़ते थे। द्विवेदी जी ने भाषा के इस स्वरूप को देखा और शुध्द करने का संकल्प किया। उन्होंने इन अशुध्दियों की ओर आकर्षित किया और लेखकों को शुध्द तथा परिमार्जित भाषा लिखने की प्रेरणा दी।
द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को कविता के लिए विकास का कार्य किया। उन्होंने स्वयं भी खड़ी बोली में कविताएं लिखीं और अन्य कवियों को भी उत्साहित किया। श्री मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय जैसे खड़ी बोली के श्रेष्ठ कवि उन्हीं के प्रयत्नों के परिणाम हैं। द्विवेदी जी ने नये-नये विषयों से हिंदी साहित्य को संपन्न बनाया। उन्हीं के प्रयासों से हिंदी में अन्य भाषाओं के ग्रंथों के अनुवाद हुए तथा हिंदी-संस्कृत के कवियों पर आलोचनात्मक निबंध लिखे गए।
मुख्य कृतियाँ –
गद्य
हिंदी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना, वैज्ञानिक कोश, नाट्यशास्त्र, विक्रमांकदेवचरितचर्चा, हिंदी भाषा की उत्पत्ति, संपत्तिशास्त्र, कौटिल्य कुठार, कालिदास की निरकुंशता, वनिता-विलाप, औद्योगिकी, रसज्ञ रंजन, कालिदास और उनकी कविता, सुकवि संकीर्तन, अतीत-स्मृति, साहित्य-संदर्भ, अदभुत आलाप, महिलामोद, आध्यात्मिकी, वैचित्र्य चित्रण, साहित्यालाप, विज्ञ विनोद, कोविद कीर्तन, विदेशी विद्वान, प्राचीन चिह्न, चरित चर्या, पुरावृत्त, दृश्य दर्शन, आलोचनांजलि, चरित्र चित्रण, पुरातत्त्व प्रसंग, साहित्य सीकर, ज्ञान वार्ता, वाग्विलास, संकलन, विचार-विमर्श, तरुणोपदेश
कविता
देवी स्तुति-शतक, कान्यकुब्जावलीव्रतम, समाचार पत्र संपादन स्तव, नागरी, कान्यकुब्ज-अबला-विलाप काव्य मंजूषा, सुमन, द्विवेदी काव्य-माला, कविता कलाप. अनुवाद : विनय विनोद (वैराग्य शतक – भतृहरि), विहार वाटिका (गीत गोविंद – जयदेव), स्नेह माला (शृंगार शतक – भतृहरि), श्री महिम्न स्तोत्र (महिम्न स्तोत्र), गंगा लहरी (गंगा लहरी – पंडितराज जगन्नाथ), ऋतुतरंगिणी (ऋतुसंहार – कालिदास), सोहागरात (ब्राइडल नाइट – बाइरन), कुमारसंभवसार (कुमारसंभवम – कालिदास), भामिनी-विलास (भामिनी विलास – पंडितराज जगन्नाथ), अमृत लहरी (यमुना स्तोत्र – पंडितराज जगन्नाथ), बेकन-विचार-रत्नावली (निबंध – बेकन), शिक्षा (एज्युकेशन – हर्बर्ट स्पेंसर), स्वाधीनता (ऑन लिबर्टी – जॉन स्टुअर्ट मिल), जल चिकित्सा (लुई कोने), हिंदी महाभारत (महाभारत), रघुवंश, वेणी-संहार (वेणीसंहार – भट्टनारायण), मेघदूत (कालिदास), किरातार्जुनीय (किरातार्जुनीयम् – भारवि), आख्यायिका सप्तक।
Rani Singh @samacharline