कैसे कैसे दिन हैं! – सुयश प्रणय त्रिपाठी

आरज़ू , चाहत , ख्वाहिश क्या चीज़ है, हैं नहीं ? जीवन खुशनुमा  और रोशन इन्ही से है पर कभी कभी इसी चाहत में अगर लहट जाओ तो गर्दिश |  दरवाज़े में दस्तक हो और दरवाज़ा खोलने पर चाहत का चेहरा मौजूद  न हो तो कत्तई  बुरा महसूस होता है , सो रहे हों आप और करवट बदलने पर उसका हाथ पकड़ में न आये  तो शायद वो दूर है ऐसा अहसास  पर सपनो, ख्याल और जुस्तुजू में वैसे ही जिंदा है जैसे साँसों में हवा और हवा में वो खुशबू | एक बहाव महज़ नहीं कह सकता इस सिलसिले को , इसको मुकम्मल करने में कोशिशें, दरख्वास्त और इंतज़ार न जाने कितने कितने पापड़ बेले गए हैं पर साहब पेड़ से गिरे फल खाने में शयद वो मजा ना आएगा जो चढ़कर तोड़कर खाने में हैं | सुबह चाय में कभी शक्कर कम तो कभी दूध पर शायद अब उसी हाथ की फीकी चाय भी भाने लगी होगी उन्हे, स्वाद के चलते नहीं पर उस साथ के चलते जिसका साथ रूखी महफ़िल भी रंगीन कर देता है | शामें बीरान थी और न जाने कितने समय से एक खालीपन था पर अब खालीपन क्या है ,अलगाव है क्या वो रूखापन है क्या एहसास ही नहीं होता | एक दिन का सफ़र करते हैं न जो शुरू होता है रजाई की लड़ाई से सुबह की उस नींद लेने की जद्दोजहद में जो खुबसूरत है और सब से आरामदायक और खुबसूरत है, आँखें मलते एक दुसरे को उठने के लिए पुकार लगते , कानो के आस पास की फुसफुसाहट और गालों में गालो का टकराना , आय हाय बड़ी खुबसूरत शुरुआत है | जनाब ऐसी खूबसूरती की ख्याल कर के दिल चहक उठे पर उन सब लड़ाइयों का क्या जिन्हें शब्दों में मै सजा नहीं सकता न पिरो सकता हूँ पर एक बात तय है साहब की ये बस मिठास हो न तो जीवन की उस मदिरा का मजा नहीं आ सकता जिसमे थोडा खट्टा तीखा होना जरुरी है| चार रोटियों की वो थाल शायद पेट भरने के लिए नाकाफी हो पर मन भर जाता है ऐसा की किसी और बस्ती में मन बहलाने के लिए जाने की जरुरत नहीं है | खुशियों का प्याला नशा देता है बखूब देता है पर तू तू मै मै आँखें खोलने का काम करता है , लड़ाई जब चरम में होती है तो न जाने मन क्या क्या सोच लेता है , मन में चलती गालियाँ और ताने और दूर जाने का एक अटल निर्णय ले लिया जाता है मन ही मन | पर फिर जब चढ़ते दिन की थकान चढ़ती है और सुकून की वो आवाज़ मोबाइल में सुन लो तो सारे गिले सिकवे बस रखे के रखे रह जाते हैं | शाम की वापसी और चाय की चुस्कियां फिर बंद होती आँखें और आलिंगन फिर सपनो में खो जाना, ऐसे सपनो में जो हम रोज़ जीते हैं | सच्चाई भी तोह है जनाब सिर्फ प्यार हो  तो समझना फरेब है और प्यार के साथ लड़ाई का तड़का हो तो समझना मोहब्बत चोखी है | कैसे कैसे दिन हैं न ? पर जैसे भी है ऐसे ही है जैसे जाम में घुलती पिघलते बर्फ की वो ठंडक जो चाँद के साए सा अहसास देती है ………  
  • सुयश प्रणय त्रिपाठी

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