लखनवी कुर्ता

जरा  इश्क़ की अदा भी तो देखिये…जान भी ले ली हमारी और ज़िंदा भी छोड़ दिया हमें “

तालियाँ  तो खूब बजी महफ़िल मे मगर  अब आप एक  जवाब दे  सके  तो आप से एक सवाल पूछने को जी चाहता हैं,

पूछिए… हाल नहीं तो सवाल ही पूछिए !!

महफ़िल मे आप जो इतना अदब से शेर पढ़ती हैं… दुनियाँ को अपना कायल बना लिया हैं आपने…

तजुर्बा हैं या दिल पर जख्म गहरा हैं?

अरे मियाँ… जिसकी ज़िन्दगी खुली किताब हैं आप वहां कौन सा तमाशा ढूंढ़ रहे हैं? …

(महफ़िल मे बैठे लोगो ने इस हाज़िर जवाबी पर बेहद वाह वाह नवाज़ी और आज फिर इसी तरह इनायत का एक और दिन महफ़िल को अपना दीवाना बनाते हुए गुज़र गया  )

बता देते हैं हर दिन अखबार मे चर्चित रहने वाली इनायत एक ओर  तो दिलो की मल्लिका बनी बैठी हैं और दूसरी ओर नाम, रूतबा और शान के अलावा उनकी ज़िन्दगी एक दम खाली हैं …ना घर हैं.. ना परिवार हैं…

ऐसे तो लोग कई बाते करते हैं.. कहते हैं की चाहे कितना ही नाम कमा लिया  हो… ये औरत अकेले ही जीने के लिए बनी हैं !!

ऐसे तो बड़ी- बड़ी शख्सियत का नाम  बदनामी के चर्चो से ज़्यादा मशहूर होते हैं..इसलिए शायद इनायत की ज़िन्दगी मे झाकना खुद इनायत ने भी छोड़ दिया था.. नशे मे रहने लगी थी !!

आखें लाल…किसी का साथ तरसते हुए…मेहबूब की याद मे डूबी हुई इनायत सिर्फ वो नहीं थी जो दुनिया उसे देख रही थी…

आज कई बरस बाद उसने हिम्मत जुटाई औऱ पुराना बक्सा जिसे वह अपने लिए क़ब्र समझती हैं उसे खोला…

बक्से में एक गहरे लाल रंग का लखनवी कुर्ता था जिसे उसने उठाया औऱ सीने से लगाकर किसी शिशु की तरह फूट -फूट कर अश्रु बहाने लगी…

छ: बरस बाद आज उसने यह बक्सा खोला था !!

सत्रह बरस की थी इनायत जब मोमिन से मुलाक़ात हैदराबाद  मे पहली बार हुई थी !!

मोमिन खुदा की इस इनायत को देखकर ही बहाल हो गए थे…  झिझकते हुए,  मगर दोस्ती की पहल कर बैठे !! खुद को सबसे दूर रखने वाली इनायत को पसंद आ रहा था की कोई उसकी तरफ दिलचस्पी दिखा रहा हैं औऱ धीरे धीरे ये मुलाक़ाते बढ़ती चली गई

पहले इश्क़ की मासूमियत किसी भी चीज़ से परे औऱ उसका सौंदर्य किसी भी चीज़ से बहुत अधिक होता हैं

कच्चेपन मे यही मासूमियत इनायत को लिखने के लिए बढ़ावा देती थी औऱ देखते ही देखते उसने अपने आप को मोमिन का मुरीद बना लिया था

अब मोमिन  ही उसकी हर परेशानी का हल

औऱ  जीने का मकसद नज़र आता था !!

मोमिन भी इनायत की ज़ुल्फो मे उलझकर  शाम गुज़ार दिया करते थे औऱ आँखों ही आँखों मे बाते करने का हुनर जानते थे औऱ एक वक़्त उन्होने इनायत से कहा

सुनो,

दिलरूबा… कल हम लखनऊ जा रहे हैं.. तुम कुछ कहो तो तुम्हारे लिए लेकर आए?

कोई फरमाइश आपकी?

जी.. जी.. वो… वो ..

अगर तुम जी औऱ वो ही करती रहोगी तो इतने मे तो हम लखनऊ से घूम कर भी वापस आ जाएंगे… कहो भी अब कुछ?

“जी आप हमारे लिए गहरा लाल रंग का लखनवी कुर्ता लाये ” हमारा बहुत जी चाहता हैं की हम लखनवी कुर्ता पहने !!

ठीक हैं

“कितने दिन के लिए जा रहे हो ”

एक महीने

“मोमिन… इतने दिनों मे तो हमारा इंतेक़ाल हो जाएगा “आपके बिना…

खुदा खैर करें ये आप कैसी बाते बोलती हैं…

मैं रोज़ आपको खत लिखूंगा औऱ जल्द वापस आऊंगा.. लखनवी कुर्ते के साथ !! मोमिन इनायत को अपनी बाहो मे भर लेता हैं औऱ दोनों एक दूसरे में खो जाते हैं..

अगले पहर इनायत मोमिन  उसे छोड़ने जाने के लिए स्टेशन साथ चलने  के लिए कहती हैं औऱ मोमिन उसे मना नहीं कर पाता,

गाडी चलने को तैयार हैं !!

मगर इनायत अब भी झिझक रही हैं.. वो मोमिन को जाने नहीं देना चाहती मगर वह सिर्फ अपनी दुआएं मोमिन के साथ भेज पाती हैं !!…उसका हाथ छुड़ाते हुए मोमिन उसके माथे पर चुम्बन छोड़ देता हैं औऱ चला जाता हैं…

इनायत के कदम जस के तस रहे गाडी जा चुकी थी… मगर उसे लगा की मोमिन अभी तुरंत वापस आ जायेगा

मगर ऐसा नहीं हुआ,

वह अपना भारी सा दिल लेकर घर लौट जाती हैं

ऐसे ही देखते- देखते औऱ मोमिन के खत के इंतेज़ार मे एक महीना बीत जाता हैं…

ना मोमिन की कोई खबर आयी ना कोई खत

सबने कहा तुम्हे मुआ धोखा देकर चला गया

दिलासा रख इनायत,  दिलासा रख

मगर इनायत किसी की एक ना सुनती थी औऱ वह भी मोमिन की खोज खबर लेने लखनऊ चली गई,

उसे याद था की मोमिन ने उससे कहा की था की वह “ज़री मुखाल “नाम के व्यापारी के यहाँ ठहरेगा.. औऱ वह उसका पता भी इनायत को देकर गया था,

इनायत व्यापारी के पास पहुँचती हैं…

औऱ व्यापारी उसे पहचान लेता हैं… कहता हैं ” मोहतरमा आप इनायत खातून हैं ”

जी… मोमिन ने बताया आपको मेरे बारे में,

जी बड़ी मेहेरबानी होंगी ज़रा उनका पता बता दीजिये कहा मिलेंगे…

माफ़ कीजिये वह अब आपसे कभी नहीं मिल सकते

जी… यह किस तरह का मखौल हैं? क्या कहना चाहते हैं आप..

माफ़ कीजिये मोहतरमा..

मगर ये बताते हुए बेहद कष्ट हो रहा हैं मुझे की मोमिन मियाँ अब हमारे बीच नहीं रहे… दस दिन पहल ही उनकी मौत एक हादसे मैं हो गई !! औऱ वह ये सामान आपके लिए छोड़ गए थे उनके पीछे !!

इनायत की दुनिया एक पल मैं वही ख़तम हो गई… उसने जो सुना उस पर वह यकीन नहीं करना चाहती थी औऱ बार बार मोमिन का  नाम पुकार रही थी… सडक पर वो मोमिन… मोमिन… चीख रही थी…

सबने उसे पागल औरत की नज़र से देखा

कोई उसका दर्द नहीं देख सका,

पहला इश्क़ अगर मिल जाए तो लोग अपने नसीब पर नाज़ करते हैं औऱ अगर अधूरा रह जाए तो नसीब को कोसने के सिवा कर भी क्या सकते हैं?

औऱ तभी इनायत के हाथ से उसका सामान छूटकर गिर जाता हैं औऱ वो देखती हैं तो उसमे उसे एक गहरा लाल लखनवी कुर्ता मिलता हैं… बिल्कुक वैसा ही जैसा उसने मोमिन से माँगा था !!

उसमे एक खत भी था जिसमे लिखा था (मेरी इनायत

मैं मानता हूँ ज़िन्दगी सिर्फ गुलाब की पंखुड़ियों की तरह नरम औऱ मुलायम नहीं हैं बल्कि काटो से  सजी हुई हैं.. मगर जानती हो मैं कही भी इन काटो पर चल सकता हूँ क्योंकि मेरे लिए तुम्हारा साथ गुलाब के फूल जैसा हैं… मुझे नहीं पता मैं कब लौटूंगा इसलिए मैं यह लखनवी कुर्ता तुम्हे भेज रहा हूँ.. मुझे महसूस करती रहना… )

इनायत बिलक- बिलक कर रोती हैं..

वह जीवन के उन सब  क्षणो को रोकना चाहती हैं जिसमे वो औऱ मोमिन साथ थे !!

मगर वह इसी कुर्ते को वापस लेकर लौट जाती हैं एक ऐसी दुनिया मैं जहा वह अब एक मशहूर कथाकार औऱ शायर बन चुकी हैं औऱ अपने बनावटी संसार मैं खुश नज़र आती हैं..

मगर आज भी मोमिन का उसे इस तरह छोड़ कर जाना उसके टिस को कम नहीं कर सका !!

उसने वह कुर्ता कभी नहीं पहना बस उसे सीने से लगाकर रखती हैं,  मानो उसने मोमिब को अपने सीने से लगाया हो जैसे..

औऱ दुनिया उसकी इसी निजी ज़िन्दगी की परते हटाकर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैं मगर इनायत ने भी बनावटी दुनिया के बीच पैर जमाने का हुनर सीख लिया  हैं !!

बात सिर्फ एक कुर्ते की नहीं हैं

बात हैं प्रेम में मरते हुए भी जीते रहने की,

जलते हुए भी चमकते रहने की,

वो जानती थी की उस दिन स्टेशन पर कुछ तो हैं जो उससे छूट रहा था

मगर इस लखनवी कुर्ते ने मोमिन के एहसास को हमेशा ज़िंदा रखा हैं…

औऱ शायद इसलिए आज उसका दर्द उसकी रचनाओं मैं मोमिन का साथ ढूंढ़ रहा हैं !!

बाकी आज पहली बार इनायत ने वो कुर्ता पहना हैं

औऱ खुद को आज़ाद कर दिया हैं  !!

 

Rani Singh@samacharline

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