लघुकथा – जादू : मुंशी प्रेमचंद

अरे साहब! लगता है ठंड नहीं पड़ेगी क्या इस बार..?’’ दिनेश बाबू यह प्रश्नवाचक ‘डायलॉग’ हर जाड़े से पहले एक बार बड़े साहब से ऊपरवाले की शिकायत करते हुए अवश्य कहते हैं.

‘‘काहे! पड़ तो रही है और क्या शिमला और मंसूरी बनवाना चाहते हो?’’ बड़े साहब ने सहज भाव से दिनेश बाबू की उत्सुकता को शांत करते हुए कहा.

‘‘नहीं साहब मेरा मतलब अभी तक ऊपर से अलाव जलवाने का आर्डर नहीं आया न इसीलिए पूछ रहा था.’’

‘‘अरे मैं तो भूल ही गया था सही कह रहे हो दिनेश बाबू. पिछले साल इसी ठंड और अलाव की महिमा के कारण ही तो तुम्हारी भाभी जी को हीरे की अंगूठी दिलाई थी. वही मैं कहूं वह आजकल ‘पद्मावती’ वाले हार की डिमांड काहे कर रही हैं!’’ अब बड़े साहब की आंखों में चमक साफ़ देखी जा सकती थी.

‘‘और नहीं तो क्या साहब! आप बड़े आदमी हैं भूल जाते हैं मेरे जैसे छोटे आदमी के घर में गीज़र भी तो तभी लगा था. मैं तो नहीं भूल सकता पिछले जाड़े को. गुड्डू की मम्मी कह रही थी इस बार जाड़े आएं तो कम से कम खाना गरम करने वाले ‘ओवन’ का जुगाड़ तो कर ही लेना.’’ दिनेश बाबू ने तम्बाकू रगड़ने का कार्यक्रम समाप्त कर उसे तालू के नीचे दबाते हुए कहा.

‘‘जनवरी तो साली आधी बीत गई. सरकार भी क्या करे जब तक एकाध ऊपर नहीं निकलेंगे तब तक अलाव जलाने का आर्डर थोड़े ही आएगा,’’ बड़े साहब अपनी क़िस्मत को धिक्कारते हुए और दिनेश बाबू को ढांढस बंधाते हुए बोले.

‘‘लेकिन साहब इस लेट लतीफ़ी के चक्कर में कहीं हमारी और आपकी बीबियां ही न ग़ुस्से में अलाव जलाकर उस पर बैठ जाएं!’’ दिनेश बाबू ने इस बार अपनी बीबी के बताए हुए ‘ओवन रूपी टारगेट’ को कुछ ज़्यादा ही सीरियसली ले लिया था.

‘‘सही कह रहे हो दिनेश बाबू, पिछले साल अब तक हम लोग काग़ज़ों में पांच लाख की लकड़ियां जलवा चुके थे और अभी तक शुरुआत ही नहीं हुई. हद है इतनी संवेदनहीनता की. सरकार को क्या…! लोग मरें, चाहे रहें. उन्हें तो बस जनता के बीच पांच साल बाद जाना है. जनता तो बेचारी भूल जाएगी लेकिन हमें तो अपनी बीबियों के पास रोज़ जाना है. अगर अलाव का बजट नहीं आया तो हमारे घर का बजट कैसे चलेगा?’’ बड़े साहब ने अपनी त्रासदी को बताते हुए अख़बार उठाया. उनकी नज़रें उस ‘गुड न्यूज़’ को ढूंढ़ रही थीं, जिसमें किसी ग़रीब की फ़ुटपाथ पर ठंड से ठिठुरकर हुई मौत की ख़बर हो.

‘‘अरे साहब अब क्या बताऊं आजकल के ग़रीब भी बड़ी मोटी चमड़ी के होते हैं. उन्हें हलकी-फुलकी ठंड से कुछ होता भी तो नहीं. बड़े बेशर्म होते हैं यह लोग कुछ भी फटा-चिथड़ा लपेट कर सो जाते हैं. मजाल है इन्हें ठंड छूभर जाए. हम लोग देखिए हीटर-ब्लोवर सब चलाए रहते हैं तब भी साहबज़ादे नाक बहाते घूमते रहते हैं.’’ दिनेश बाबू ठंड के असमान वितरण पर आक्रोशित होते हुए बोले.

‘‘क्या फ़ायदा अपना बीपी बढ़ाने से. बस दुआ करो जल्दी ठंड का असर दिखाई पड़े. पिछले साल पूरे दस लाख की लकड़ी का बजट आया था, जल-जलाकर और बंट-बंटाकर भी ठंडक ने अच्छी ख़ासी गर्मी पैदा कर दी थी. देखो इस बार तो महंगाई बढ़ गई है, पूरे बीस लाख का बजट आना चाहिए.’’ बड़े साहब ने आशा का दामन नहीं छोड़ा था.

‘‘काहें साहब आप भी ऐसी बातें करके मन बहला रहे हो? अलाव जलाने का जुगाड़ करो दिल जलाने का नहीं. कसम से बस एकाध बंदा ही टपक जाए तो आज शाम तक ही अलाव जलाने की घोषणा हो जाएगी. देखिए साहब अख़बार क़ायदे से देखिए किसी कोने में कोई न कोई मरा ज़रूर होगा.’’

‘‘नहीं दिनेश बाबू ठंड से मरनेवालों की ख़बरें फ्रंट पेज पर निकला करती हैं. उन्हें कोने में ढूंढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. फ़ुटपाथ पर सोनेवाले किसी ग़रीब की शान मरने के बाद ही तो पता चलती है. अमीरों की ज़िंदगी अख़बार वालों को मसाला देती है, जिसे वह ‘पेज थ्री’ पर मुफ़्त में निकालते हैं, जबकि उनकी मौत बेअसर होती है जिसे वह पैसा लेकर छापते हैं. वहीं एक ग़रीब की ज़िंदगी के मुद्दे उन्हें कभी नहीं दिखाई पड़ते, उन्हें उनकी मौत में ही मसाला दिखाई पड़ता है जिसे वह फ्रंट पेज पर जगह देते हैं.’’

‘‘वाह साहब! काश जीवन का यह फ़लसफ़ा सरकार समझ पाती. ज़रा बात तो करिए हेड ऑफ़िस से कहीं कोई आर्डर-वार्डर तो नहीं निकलने वाला हैं? विपक्ष भी इस बार ठंडा पड़ा है, वह भी हो हल्ला नहीं कर रहा है. कम से कम उसे तो चिल्लाना चाहिए.’’

‘‘दिनेश बाबू! बधाई हो. ऊपरवाले ने हमारी सुन ली है. तुम्हारी भाभी जी का अभी-अभी फ़ोन आया था. टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही है कि ठंड से ज़िले में चार मौतें हुई हैं और सरकार ने तत्काल प्रभाव से अलाव जलाने और कम्बल बांटने का आदेश कर दिया है!’’

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