बाते -मंटो

बंबई आया था कि चंद रोज़ पुराने दोस्तों के साथ गुज़ारूँगा और अपने थके हुए दिमाग़ को कुछ आराम पहुंचाऊंगा, मगर यहां पहुंचते ही वो झटके लगे कि रातों की नींद तक हराम हो गई।

सियासत से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं। लीडरों और दवा-फ़रोशों को मैं एक ही ज़ुमरे में शुमार करता हूँ। लीडरी और दवा-फ़रोशी। ये दोनों पेशे हैं। दव- फ़रोश और लीडर दोनों दूसरों के नुस्खे़ इस्तिमाल करते हैं। ख़ैर कहना ये है कि सियासत से मुझे उतनी ही दिलचस्पी है जितनी गांधी जी को सिनेमा से। गांधी जी सिनेमा नहीं देखते, मैं अख़बार नहीं पढ़ता। असल में हम दोनों ग़लती करते हैं। गांधी जी को फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए और मुझे अख़बार ज़रूर पढ़ने चाहिए।

ख़ैर साहब बंबई पहुंचा। वही बाज़ार थे, वही गलियाँ थीं। जिनके पत्थरों पर पाँच बरस मेरे नक़्श-ए-क़दम बिखरते रहे थे। वही बंबई थी जहां मैं दो हिंदू मुस्लिम फ़साद देख चुका था। वही ख़ूबसूरत शहर था, जिसके अंदर मैंने कई बेगुनाह मुसलमानों और हिंदुओं के ख़ून के छींटे उड़ते देखे थे। वही जगह थी जहां कांग्रेस ने इम्तीना-ए-शराब का क़ानून पास कर के उन हज़ारहा मज़दूरों को बेकार कर दिया था। जो ताड़ी निकालते थे। वही मक़ाम था जहां मैंने कई धोबियों को जो बारह बारह घंटे पानी में खड़े रहते थे, रात को अपने जिस्म में गर्मी पैदा करने के लिए ज़हरीली स्पिरिट पीते देखा था… वही उरूसुल-बिलाद थी जिसके घूँघट का एक हिस्सा हरीरी है और दूसरा मोटे और खुरदुरे टाट का… वही बंबई था जहां ऊंची ऊंची ख़ूबसूरत इमारात के क़दमों में फ़ुटपाथों पर हज़ारहा मख़्लूक़ रात को सोती है।

मैंने बस में सवार होते हुए एक औरत को देखा, फिर देखा… अब के ग़ौर से देखा… आह, हक़ीक़त मेरे सामने थी उन काले हलक़ों की सूरत में जो उस लड़की की शर्बती आँखों के नीचे पड़े थे। मैंने उससे पूछा (नाम नहीं बताऊँगा) ये तुम्हें क्या हो गया है…? मैंने उस लड़की को दिल्ली में देखा था। मुग़लों की दिल्ली में जिन्हें मक़बरे बनाने का बहुत शौक़ था। कितनी भोली-भाली थी। सिर्फ दस महीने पहले वो किस क़दर मासूम थी। मैं उससे डर के मारे बात तक ना करता था। मैं उसको देखता था तो मुझ पर रोअब सा तारी हो जाता था। पर अब मैंने उसे देखा तो मुझे उसके और अपने दरमियान कोई चीज़ भी हाइल महसूस ना हुई। मैंने उसके कांधे पर बे-धड़क हाथ रखकर उससे पूछा। ‘कहो, कैसी गुज़र रही है।’ उसकी आँखों में एक धुँदली सी चमक पैदा हुई मुझे ऐसा मालूम हुआ कि वो दिया जो कभी मंदिर में जलता था, अब देर से किसी वैश्या के घर में जल रहा है। देर से बहुत देर से… ये बंबई कितनी लड़कियों को औरतों में तब्दीली कर चुका है…? इस्मत की हिफ़ाज़त ज़रूरी है मगर पेट की भूक मिटाना भी ज़रूरी है। यहां बंबई में आकर मालूम होता है कि औरत को भूक भी लगती है।

दो हिंदू मुस्लिम फ़साद इस शहर में देख चुका हूँ। बिनाए फ़साद वही थी, पुरानी मंदिर और मस्जिद… गाय और सूअर। मंदिर और मस्जिद ईंटों का ढेर, गाय और सूअर, गोश्त का ढेर… पर इस दफ़ा एक नया फ़साद देखने में आया। हिंदू-मुस्लिम फ़साद नहीं। मंदिर और मस्जिद का झगड़ा नहीं, गाय और सूअर का क़ज़िया नहीं, एक नए किस्म का हुल्लड़, एक नए क़िस्म का तूफ़ान जो बंबई में क़रीबन छः रोज़ मचा रहा।

एक रोज़ टेलीफ़ोन पर किसी साहब ने मुझे बताया कि रात में कांग्रेस के तमाम लीडर गिरफ़्तार कर लिए गए, गांधी जी समेत जो कांग्रेस के मेंबर हैं… मैंने कहा अच्छा भई, गिरफ़्तार कर लिए गए हैं तो ठीक है, ये लोग गिरफ़्तार और रिहा होते ही रहते हैं। मुझे कोई अचम्भा ना हुआ। थोड़ी देर के बाद फिर एक दोस्त ने रिंग किया तो मालूम हुआ कि शहर भर में हुल्लड़ मच गया है। पुलिस ने लाठी चार्ज किया है गोली चलाई है। फ़ौज बुलाई गई है। बाज़ारों में टैंक चल रहे हैं… दो तीन रोज़ तक मैं घर से बाहर ना निकल सका। अख़बार पढ़ता रहा और लोगों से भांत भांत की ख़बरें सुनता रहा।

मुस्लिम लीग मस्जिद है, कांग्रेस मंदिर है। लोगों का यही ख़्याल है। अख़बार भी यही कहते हैं, कांग्रेस स्वराज चाहती है, मुस्लिम लीग भी, लेकिन दोनों के रस्ते जुदा-जुदा हैं। दोनों मिल-जुल कर काम नहीं करते। इसलिए कि मंदिर और मस्जिद साख़्त के एतबार से कोई मुताबिक़त नहीं रखते। मेरा ख़्याल था कि ये जो फ़साद हो रहा है। इसमें हिंदू और मुसलमान एक दूसरे से मसरूफ़-ए-पैकार हो जाएंगे और इन दोनों के ख़ून का मिलाप जो मंदिरों और मस्जिदों में नहीं होता। मोरियों और बदरओं में होगा, मगर मुझे बहुत ताज्जुब हुआ, जब मेरा ये ख्याल बिलकुल ग़लत साबित हुआ।

माहिम की तरफ़ एक लंबी सड़क जाती है। सड़क के आख़िरी सिरे पर मुसलमानों की मशहूर ख़ानक़ाह है। मुसलमान मुर्दा-परस्त मशहूर हैं। जब बलवा शुरू हुआ और शहर के इस हिस्से तक पहुंच गया। लड़कों और बच्चों ने फुटपाथ के दरख़्त उखेड़ उखेड़ कर बाज़ार में रखने शुरू किए तो एक दिलचस्प वाक़िया पेश आया। चंद हिंदू लड़के लोहे का एक जंगला घसीट कर उस तरफ़ ले जाने लगे। जिधर ख़ानक़ाह है चंद मुसलमान आगे बढ़े, उनमें से एक ने बड़ी आहिस्तगी से उन लड़कों से कहा। ‘देखो भई उधर मत आओ… यहां से पाकिस्तान शुरू होता है।’ सड़क पर एक लकीर खींच दी गई, चुनांचे बलवा-पसंद लड़के चुपचाप उस जंगले को उठा कर दूसरी तरफ़ ले गए कहते हैं कि ‘पाकिस्तान’ की तरफ़ फिर किसी ‘काफ़िर’ ने रुख़ ना किया।

भिंडी बाज़ार मुसलमानों का इलाक़ा है। वहां कोई शोरिश ना हुई। मुसलमान वो मुसलमान जो हिंदू मुस्लिम फ़साद में सबसे पेश पेश होते थे अब होटलों में चाय की प्यालियां सामने रखकर फ़साद की बातें करते थे और ठंडी साँसें भरते थे। मैंने एक मुसलमान को अपने दोस्त से कहते सुना, ‘हमारे जिन्ना साहब देखिए हमें कब ऑर्डर देते हैं।’

इसी बलवी का एक लतीफ़ा सुनिए,

एक सड़क पर एक अंग्रेज़ अपनी मोटर में जा रहा था। चंद आदमियों ने उस की मोटर रोक ली। अंग्रेज़ बहुत घबराया कि ना मालूम ये सरफिरे लोग उसके साथ किस क़िस्म का वहशियाना सुलूक करेंगे, मगर उसको हैरत हुई जब एक आदमी ने उससे कहा देखो। ‘देखो, अपने शोफ़र को पीछे बिठाओ और ख़ुद अपनी मोटर ड्राईव करो… तुम नौकर बनो और उसको अपना आक़ा बनाओ।

अंग्रेज़ चुपके से अगली सीट पर चला गया। उसका शोफ़र बौखलाया हुआ पिछली सीट पर बैठ गया… बलवा पसंद लोग इतनी सी बात पर ख़ुश हो गए। अंग्रेज़ की जान में जान आई कि चलो सस्ते छूट गए।

एक जगह बंबई के एक उर्दू फ़िल्मी अख़बार के ऐडिटर साहब पैदल जा रहे थे। बिल वसूल करने की ख़ातिर उन्होंने सूट-वूट पहन रखा था। हैट भी लगी थी। टाई भी मौजूद थी। चंद फ़सादियों ने उन्हें रोक कर कहा ‘ये हैट और टाई उतार कर हमारे हवाले कर दो।’ ऐडिटर साहब ने डर के मारे ये दोनों चीज़ें उनके हवाले कर दीं। जो फ़ौरन दहकते हुए अलाव में झोंक दी गईं। इसके बाद एक ने ऐडिटर साहब का सूट देखकर कहा। ‘ये भी तो अंग्रेज़ी है, इसे क्या नहीं उतरवाना चाहिए। ऐडिटर साहिब सिटपिटाए कि अब क्या होगा, चुनांचे उन्होंने बड़ी लजाजत के साथ उन लोगों से कहा। ‘देखो, मेरे पास सिर्फ यही एक सूट है जिसे पहन कर में फ़िल्मी कंपनियों में जाता हूँ और मालिकों से मिलकर इश्तिहार वुसूल करता हूँ। तुम इसे जला दोगे तो मैं तबाह हो जाऊँगा। मेरी सारी बिज़नेस बर्बाद हो जाएगी।

ऐडिटर साहब की आँखों में जब उन लोगों ने आँसू देखे तो पतलून और कोट उनके बदन पर सलामत रहने दिया।

मैं जिस मुहल्ले में रहता हूँ, वहां क्रिस्चियन ज़्यादा आबाद हैं। हर रंग के क्रिस्चियन, स्याह फ़ाम क्रिस्चियनों से लेकर गोरे चिट्टे तक आपको तमाम शैड यहां मिल जाएंगे। जामुनी रंग के क्रिस्चियन भी मैंने यहां देखे हैं, जो ख़ुद को हिन्दुस्तान की फ़ातिह क़ौम यानी अंग्रेज़ों में शुमार करते हैं।

इस बलवे में इन लोगों का मैंने बुरा हाल देखा। पतलूनों में मर्दों की और स्कर्ट्स में औरतों की नंगी टांगें काँपती थीं जब फ़साद की ख़बरें आती थीं… डर के मारे मर्दों ने हैट लगाने छोड़ दिए। टाईयां गले से अलग कर दीं। औरतों ने स्कर्टस और फ़्राक पहनने छोड़ दिए और साड़ियां पहनना शुरू कर दीं।

हिंदू-मुस्लिम फ़साद के दिनों में हम लोग जब बाहर किसी काम से निकलते थे तो अपने साथ दो टोपियां रखते थे। एक हिंदू कैप, दूसरी रूमी टोपी, जब मुसलमानों के मुहल्ले से गुज़रते थे तो रूमी टोपी पहन लेते थे और जब हिंदूओं के मुहल्ले में जाते थे तो हिंदू कैप लगा लेते थे… इस फ़साद में हम लोगों ने गांधी कैप ख़रीदी। ये हम जेब में रख लेते थे जहां कहीं ज़रूरत महसूस होती थी। झट से पहन लेते थे… पहले मज़हब सीनों में होता था आज कल टोपियों में होता है। सियासत भी अब टोपियों में चली आई है… ज़िंदाबाद टोपियां।

मेरे सामने दीवार पर एक क्लाक आवेज़ां है… अभी-अभी उसने बारह बजाए हैं। इसका मतलब ये है कि चार बजे हैं। जब चार का वक़्त होगा तो ये बारह बजाएगा। इसमें कोई ख़राबी वाक़ेअ गई है। मैंने अब सोचना शुरू किया है तो मुझे इस क्लाक में और हमारे अवाम की मौजूदा हालत में सद-गुना मुमासिलत नज़र आती है। क्लाक की तरह उनके कल पुर्ज़ों में भी कोई ख़राबी है। यूं तो क्लाक की सूइयों की तरह वो अपना काम ठीक करते हैं, लेकिन उनके फेअल और उसके ज़ाहिरी नतीजा में बहुत तज़ाद होता है, बिल्कुल इस क्लाक के मानिंद जो बारह के अमल पर चार दफ़ा टन-टन करता है और चार बजने पर बारह दफ़ा टन-टन करता है।

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