चंदे का डर (लघुकथा): हरिशंकर परसाई

एक छोटी-सी समिति की बैठक बुलाने की योजना चल रही थी। एक सज्‍जन थे जो समिति के सदस्‍य थे, पर काम कुछ नहीं, गड़बड़ पैदा करते थे और कोरी वाहवाही चाहते थे। वे लंबा भाषण देते थे।

वे समिति की बैठक में नहीं आवें, ऐसा कुछ लोग करना चाहते थे, पर वे तो बिना बुलाए पहुँचने वाले थे। फिर यहाँ तो उनको निमंत्रण भेजा ही जाता, क्‍योंकि वे सदस्‍य थे।

एक व्‍यक्ति बोला, ‘एक तरकीब है। साँप मरे, न लाठी टूटे। समिति की बैठक की सूचना में नीचे यह लिखा दिया जाए कि बैठक में बाढ़-पीडि़तों के लिए धन-संग्रह भी किया जाएगा। वे इतने उच्‍च कोटि के कंजूस हैं कि जहाँ चंदे वगैरह की आशंका होती है, वे नहीं पहुँचते।’

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