कहानी/उपन्यास

कोसी का घटवार – शेखर जोशी

अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूं शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को झाडक़र एक ढेर बना दिया। बाहर आते-आते उसने फिर एक बार और खप्पर में झांककर देखा, जैसे यह जानने के लिए

पुस्तक समीक्षा : गोदान

मुंशी प्रेमचंद का मूल नाम लाला धनपतराय था। उनका जन्म 31 जुलाई, 1880  में बनारस के लमही गाँव में हुआ। उनकी साहित्य-रचना में कुल 320 कहानियाँ और 14  उपन्यास शुमार हैं। यूँ तो मुंशी प्रेमचंद की प्रत्येक रचना जन-जीवन का आईना है, परन्तु ‘गोदान’ हिंदी साहित्य की एक अमूल्य निधि

चंदे का डर (लघुकथा): हरिशंकर परसाई

एक छोटी-सी समिति की बैठक बुलाने की योजना चल रही थी। एक सज्‍जन थे जो समिति के सदस्‍य थे, पर काम कुछ नहीं, गड़बड़ पैदा करते थे और कोरी वाहवाही चाहते थे। वे लंबा भाषण देते थे। वे समिति की बैठक में नहीं आवें, ऐसा कुछ लोग करना चाहते थे,

पुस्तक समीक्षा : गुनाहो के देवता

गुनाहों का देवता उपन्यास की गिनती हिंदी साहित्य जगत में उन रचनाओं में होती है जिन्होंने साहित्य की धारा को ही एक नया मोड़ दिया है। प्रथम प्रकाशन के 65 साल बाद भी यह सबसे ज्यादा मांग में रहने वालों उपन्यासों में से एक है और स्वयं के अनुभव से

लघुकथा – जादू : मुंशी प्रेमचंद

अरे साहब! लगता है ठंड नहीं पड़ेगी क्या इस बार..?’’ दिनेश बाबू यह प्रश्नवाचक ‘डायलॉग’ हर जाड़े से पहले एक बार बड़े साहब से ऊपरवाले की शिकायत करते हुए अवश्य कहते हैं. ‘‘काहे! पड़ तो रही है और क्या शिमला और मंसूरी बनवाना चाहते हो?’’ बड़े साहब ने सहज भाव

लखनवी कुर्ता

जरा  इश्क़ की अदा भी तो देखिये…जान भी ले ली हमारी और ज़िंदा भी छोड़ दिया हमें “ तालियाँ  तो खूब बजी महफ़िल मे मगर  अब आप एक  जवाब दे  सके  तो आप से एक सवाल पूछने को जी चाहता हैं, पूछिए… हाल नहीं तो सवाल ही पूछिए !! महफ़िल मे आप जो इतना अदब से शेर पढ़ती हैं… दुनियाँ को अपना कायल बना लिया हैं आपने… तजुर्बा हैं या दिल पर जख्म गहरा हैं? अरे मियाँ… जिसकी ज़िन्दगी खुली किताब हैं आप वहां कौन सा तमाशा ढूंढ़ रहे हैं? … (महफ़िल मे बैठे लोगो ने इस हाज़िर जवाबी पर बेहद वाह वाह नवाज़ी और आज फिर इसी तरह इनायत का एक और दिन महफ़िल को अपना दीवाना बनाते हुए गुज़र गया  ) बता देते हैं हर दिन अखबार मे चर्चित रहने वाली इनायत एक ओर  तो दिलो की मल्लिका बनी बैठी हैं और दूसरी ओर नाम, रूतबा और शान के अलावा उनकी ज़िन्दगी एक दम खाली हैं …ना घर हैं.. ना परिवार हैं… ऐसे तो लोग कई बाते करते हैं.. कहते हैं की चाहे कितना ही नाम कमा लिया  हो… ये औरत अकेले ही जीने के लिए बनी हैं !! ऐसे तो बड़ी- बड़ी शख्सियत का नाम  बदनामी के चर्चो से ज़्यादा मशहूर होते हैं..इसलिए शायद इनायत की ज़िन्दगी मे झाकना खुद इनायत ने भी छोड़ दिया था.. नशे मे रहने लगी थी !! आखें लाल…किसी का साथ तरसते हुए…मेहबूब की याद मे डूबी हुई इनायत सिर्फ वो नहीं थी जो दुनिया उसे देख रही थी… आज कई बरस बाद उसने हिम्मत जुटाई औऱ पुराना बक्सा जिसे वह अपने लिए क़ब्र समझती हैं उसे खोला… बक्से में एक गहरे लाल रंग का लखनवी कुर्ता था जिसे उसने उठाया औऱ सीने से लगाकर किसी शिशु की तरह फूट -फूट कर अश्रु बहाने लगी… छ: बरस बाद आज उसने यह बक्सा खोला था !! सत्रह बरस की थी इनायत जब मोमिन से मुलाक़ात हैदराबाद  मे पहली बार हुई थी !! मोमिन खुदा की इस इनायत को देखकर ही बहाल हो गए थे…  झिझकते हुए,  मगर दोस्ती की पहल कर बैठे !! खुद को सबसे दूर रखने वाली इनायत को पसंद आ रहा था की कोई उसकी तरफ दिलचस्पी दिखा रहा हैं औऱ धीरे धीरे ये मुलाक़ाते बढ़ती चली गई पहले इश्क़ की मासूमियत किसी भी चीज़ से परे औऱ उसका सौंदर्य किसी भी चीज़ से बहुत अधिक होता हैं कच्चेपन मे यही मासूमियत इनायत को लिखने के लिए बढ़ावा देती थी औऱ देखते ही देखते उसने अपने आप को मोमिन का मुरीद बना लिया था अब मोमिन  ही उसकी हर परेशानी का हल औऱ  जीने का मकसद नज़र आता था !! मोमिन भी इनायत की ज़ुल्फो मे उलझकर  शाम गुज़ार दिया करते थे औऱ आँखों ही आँखों मे बाते करने का हुनर जानते थे औऱ एक वक़्त उन्होने इनायत से कहा सुनो, दिलरूबा… कल हम लखनऊ जा रहे हैं.. तुम कुछ कहो तो तुम्हारे लिए लेकर आए? कोई फरमाइश आपकी? जी.. जी.. वो… वो .. अगर तुम जी औऱ वो ही करती रहोगी तो इतने मे तो हम लखनऊ से घूम कर भी वापस आ जाएंगे… कहो भी अब कुछ? “जी आप हमारे लिए गहरा लाल रंग का लखनवी कुर्ता लाये ” हमारा बहुत जी चाहता हैं की हम लखनवी कुर्ता पहने !! ठीक हैं “कितने दिन के लिए जा रहे हो ” एक महीने “मोमिन… इतने दिनों मे तो हमारा इंतेक़ाल हो जाएगा “आपके बिना… खुदा खैर करें ये आप कैसी बाते बोलती हैं… मैं रोज़ आपको खत लिखूंगा औऱ जल्द वापस आऊंगा.. लखनवी कुर्ते के साथ !! मोमिन इनायत को अपनी बाहो मे भर लेता हैं औऱ दोनों एक दूसरे में खो जाते हैं.. अगले पहर इनायत मोमिन  उसे छोड़ने जाने के लिए स्टेशन साथ चलने  के लिए कहती हैं औऱ मोमिन उसे मना नहीं कर पाता, गाडी चलने को तैयार हैं !! मगर इनायत अब भी झिझक रही हैं.. वो मोमिन को जाने नहीं देना चाहती मगर वह सिर्फ अपनी दुआएं मोमिन के साथ भेज पाती हैं !!…उसका हाथ छुड़ाते हुए मोमिन उसके माथे पर चुम्बन छोड़ देता हैं औऱ चला जाता हैं… इनायत के कदम जस के तस रहे गाडी जा चुकी थी… मगर उसे लगा की मोमिन अभी तुरंत वापस आ जायेगा मगर ऐसा नहीं हुआ, वह अपना भारी सा दिल लेकर घर लौट जाती हैं ऐसे ही देखते- देखते औऱ मोमिन के खत के इंतेज़ार मे एक महीना बीत जाता हैं… ना मोमिन की कोई खबर आयी ना कोई खत सबने कहा तुम्हे मुआ धोखा देकर चला गया दिलासा रख इनायत,  दिलासा रख मगर इनायत किसी की एक ना सुनती थी औऱ वह भी मोमिन की खोज खबर लेने लखनऊ चली गई, उसे याद था की

मेरा नाम कल्पना है और मैं चाहती हूँ की आप मुझे सुने

मैं  आप लोगो के बीच  नहीं हूँ आज,  मगर हो सकती थी  और चौकिए मत,  क्योंकि आप लोगो के बीच मेरे ना होने  का,  एक मात्र कारण सिर्फ आप ही है !  मेरे घरवालों ने मेरा जीवन यह कहकर ख़त्म  कर दिया की मैं उनके लिए आगे चलकर बोझ का

‘झूठा सच’ की समीक्षा

हिंदी साहित्य के जाने–माने उपन्यासकारों में यशपाल एक हैं। उनमें उनका उपन्यास ‘झूठा सच‘ जो कि भारत विभाजन पर लिखी गई अब तक की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है। उन्होंने इस उपन्यास को दो भागों में लिखा है जिसका पहला भाग ‘झूठा सच( वतन और देश)’ एवं दूसरा भाग ‘झूठा

कैसे कैसे दिन हैं! – सुयश प्रणय त्रिपाठी

आरज़ू , चाहत , ख्वाहिश क्या चीज़ है, हैं नहीं ? जीवन खुशनुमा  और रोशन इन्ही से है पर कभी कभी इसी चाहत में अगर लहट जाओ तो गर्दिश |  दरवाज़े में दस्तक हो और दरवाज़ा खोलने पर चाहत का चेहरा मौजूद  न हो तो कत्तई  बुरा महसूस होता है

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